Sunday, 26 July 2015

कविता ९५. अपने दम पर

                                                                 अपने दम पर
जाने क्यों हम दूसरो को ढूढ़ते है उम्मीदों के साये हमें हर पल बस यही लगता है की दुसरे ही हमारे लिए लायेंगे उम्मीदों के साये
जब  हर एक मोड़ पर हम ही काफी होते है वह करने के लिए जो हम चाहे अपने साथ जो चलते है वह भी बड़े मुश्किलों से ही ढुढेगे वह साये
बाकी जो बाते करते है वह तो बस बातों में ही रहेंगे वह हमें उम्मीद कहा दे पाये अपना सहारा हम खुद है यह जो समजे वही किनारा पाये
अनजानों से क्या मिलेगा जब जाने पहचाने भी कभी कभी देने से कतराये जो हम आज तक चल सके है आसानी से तो क्यों अचानक हम दूसरों से मांगे वह उम्मीदों के साये
जब जब हम आगे बढ़ते है उम्मीदों पर ग्रहण पाते है तब ईश्वर हम से अपने दम चलने की सोच ही हमें दे जाये
तो फिर क्यों उसे ठुकराकर हम आगे बढ़ते जाये
हम ही अपनी कश्ती है और हम ही अपना किनारा है यह जो जीवन में समज जाये वही जाने अहमीयत इस जीवन की बाकी कुछ भी ना समज पाये
जब जब आगे बढ़ते है हमे  तभी मिलते है  अंधियारों के साये कोई साथी मिल भी जाये और मदद्त कर भी दे तो क्या आखिर कब तक हम वह मदद्त पाये
आखिर हम भी तो एक चट्टान है जिससे कई लोग लगाये हुए है उम्मीदों के साये शायद हम यह समज नहीं पाते है पर हम भी दोस्तों के लिए है उम्मीदों के साये
बिन सोचे बस जो यह कह दे की अपनी मुसीबत वह अपने दम पर पार कर के जाये उसे ही तो खुदा देगा वह उम्मीद जिसके लिए हर तरस जाये
मत माँगो मदद्त उससे क्युकी कितना भी वह दे वह काफी ना हो पाये जीवन हर बार नयी मुसीबतों संग हमें नयी राहे दिखाये 

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