Saturday, 25 July 2015

कविता ९४. एक ही किंमत में कई खेल

                                                         एक ही किंमत में कई खेल 
जब जब हम संभल जाये कुछ नया ही होता है बुरा नहीं पर मन को वह अलग जरूर लगता है शायद जिन्दगी को वह खेल बहुत भाता है
जिसमे हर बार कोई कोई नया मौका जरूर जिन्दगी में मिलता है हर बार हर खेल में मन को जीवन अलग नजर आता है और हर खेल को वह समज पाता है 
जब जब हम दुनिया को समजे वह हमें फिर से समजाता है की कुछ अलग ही चीज़ है जिसे समजना अक्सर रह जाता है 
क्युकी जिन्दगी के हर मोड़ पर हम कुछ तो समज पाते है जो पहले नहीं समज पाये है हर बार खेल के अंदर कुछ ना कुछ हम जरूर समज पाते है 
बार बार जीवन को जो हम समज तो पाते है जिन्दगी के कई असर नज़र आते है हम तो बस यही सोचते है हर पल जब भी हम आगे बढ़ जाते है 
जिन्दगी के अंदर तरह तरह की चीज़े होती है जिनके नतीजे तो हर बार हमें नज़र आते है जिन्दगी के अंदर जो भी असर लाते है 
पर हम हर बार यह सोचते रहते है क्युकी जिन्दगी में मन को कई बाते छू जाती है जो जीवन पर हर बार असर लाती है 
जब जब हम आगे बढ़ते है शायद जीवन के हिस्से हर बार कुछ नया सुनाते है हम अगर जीवन को नयी बात  बताते है 
जीवन में नये मोड़ हमेशा नज़र आते है काश उन मोड़ों को एक बार में ही समज पाते हम क्युकी इस तरह से तो जिन्दगी हर बार नया नया इम्तिहान लेती है 
जिन्दगी को अगर हर हिस्से में समज पाये हम तो जिन्दगी हमें नये नये मोड़ दिखाती है तो शायद यह जिद्द ही गलत है
जो हम सोचते है जिन्दगी को एक ही बार में समजले हम क्युकी एक ही जीवन में यह जिन्दगी हमें कई रंग दिखा देती है एक ही किंमत के कई खेल दिखा देती है 

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