Thursday, 12 May 2016

कविता ६७७. बिना लब्जों कि बात

                                                बिना लब्जों कि बात
जब लब्जों से कोई बात कही नही जाती है जाने क्यूँ वह बात हमारे समझ मे ही नही आती है या अनसुनी करते है उसको क्योंकि लोग तो कही बात से भी मुकर जाते है
तो क्यूँ सुने हम उस अनकही को पर हमने सुना है लोगों से उनके ही अफसाने बन जाते है इसीलिए हमे उन्हे सुनने कि कोशिश मे जुड जाते है
जिसे सीधी बात ही समझ आती है उसे कहाँ जीवन कि अनकही बाते समझ आ पाती है क्योंकि उसकी दुनिया उनके संग ही बदलती जाती है
लब्जों के अंदर सौगाद जीवन को दिशाए देकर जाती है वही जीवन कि ताकद बनकर हर पल नजर आती है पर अनकही बाते भी तो सुननी होती है
हम अक्सर उन्हे पढने नही जाते है पर जब पढते है उनकी दुनिया ही कुछ अलगसी होती है जो हमारे जीवन को उम्मीदे देती है
पर लब्जों के पार हर बार जीवन कि कुछ खुशियाँ तो होती है काश उन्हे समझ लेते क्योंकि उनसे ही दुनिया जन्नत होती है
लब्जों के अंदर दुनिया कि अलग ताकद होती है जो हमारे सोच को रोशनी देती है हमारी दुनिया बदलकर हर पल आगे चलती है
पर जो बात लोग लब्जों मे कहने को तैयार ना हो वह बात बिना लब्जों के समझ लेने कि मजबूरी होती है
पर कुछ बाते ऐसी भी है जो बिना लब्जों के हमारे समझमे नही आती है लब्जों के साथ ही तो हमारी दुनिया बन पाती है खुशियाँ बन पाती है
पर अक्सर वह बात जो लब्जों मे सीधी हो वह उतनी बिना लब्जों कि नही होती है क्योंकि समझ तो आती है पर मन को सही समझ लेने कि तसल्ली नही होती है 

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