Thursday 11 June 2015

कविता ५ उलझन

                                                                उलझन
हमने उन निगाहों को देखा था इस तरफ आते हुए पर अब शक है की कही वह धोका होगा
फर्क तो नहीं पड़ता यह समजाया मैंने पर फिर लगता है के शायद कोई दर्द तो उठता होगा
मेरे दिल में चाहत तो थी बस उलझन सुलझे पर उस किताब ने बस  को ही जगाया होगा
तो छोड़ के क्यों न आगे बढ़े क्युकी क्या करे बताओ हमे उस किताब का जिसे पढ़ना मुश्किल होगा
हर बार हम यूही  आगे बढे की तो समाज न पायेगे उस किताब का क्या मतलब था उसका क्या करना होगा
हम उस मोड़ पर काश उस निगाह को समाज पाते हम पर फिर सोचते है की उनमे सिर्फ सपना होगा
जो हमने देखा था कभी खेल ही खेल में उनमे कोई अपना नहीं सिर्फ सपना बसा देखा होगा
जब यह सोचकर आगे बढ़ जाते है हम की वह कोई मतलब ना था पर फिर से दिल पूछता है क्या यह सही जवाब होगा
कही हम इतना तो नहीं डरते  है दिल की चोट से पहले ही हमारा मलम इस दिल के लिए हाजिर होगा
दर्द से जो डरता है वह हमारा दिल है तो शायद उसे मुश्किल से कुछ हासिल होगा
फिर भी हम जानते है की कोशिश जरुरी है क्युकी ऐसा न हो के हम अपना खयाल रखते चले और दुसरा कोई घायल होगा
अनदेखी  भी कर दे वह नजर पर तस्सली तो हो कोई घायल परिंदा ना होगा
क्युकी हम चोट खाने से हमेशा डरते है पर उसका मतलब यह नहीं दुसरे को रुलाना मुनासीब होगा
हमे यकी  तो है की हमने सपना देखा पर फिर भी फुरसत में तस्सली करना हमारे दिल के लिए मुनासीब  होगा

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