Sunday 21 June 2015

कविता २५. अल्फाज बदल जाते है

                                                             अल्फाज बदल जाते है    
कहते कहते कभी कभी बात बदल जाती है अल्फाज बदल जाते है लोग हर चीज़ बदल सकते है पर एक बात ना बदल पाते है
वह है हमारे दिल की सोच कितना भी उसे जुट लाये पर उसे बदल ना पाते है हर सोच पर कोई ओर बात कहते है
पर लोग हमे ना बदल पाते है
हर बार जब हम आगे बढे इन्सान बन के चले उसे किस तरह से यह लोग जुट ला पायेगे हर बार उसी राह पर तो हम चलते है
सिर्फ लब्जों से इन्सान बनते नहीं इन्सान तो उनके दिलों से बनते है चाहे कितना भी जुट लाये लोग सच्चे तो हमेशा सच्चे ही रहते है
पर क्या करे लोग कहा समज पाते है उनके हिसाब से चलते है और दूसरों को चलना चाहते है पर क्या जरुरी है की वह हमे समाज पाये
या यही काफी है की हम अपना कारवा चला पाये हम आगे बढ़ते है और कभी पिछे मुड़ते है पर यह सिर्फ हम हमारे लिए करते है
सही तो है हासिल हमारे दिल को यू की वही हर बार मंज़िल बन के हमे मिलता है सही हासील नहीं आसानी से पर सिर्फ उसके लिए चलते है
हमारे अल्फाज बदल लेने से बता नहीं उन्हें क्या हासील होगा आखिर में सही तो सही ही साबित होगा पर फिर भी  कुछ लोग यह बात किया करते है
दूसरों के दुखों में हँसा करते है पर हमे क्या करना है उनसे आखिर उस जिन्दगी में हम तो बस अपनी राह चलते है
कितना भी बदल दे वह अल्फाजो को आखिर हरकत से ही हम इन्सान समजते है वक्त लगता है पर भी सब समज तो जाते है
हम क्या बात कर रहे थे और क्या बात वह सुनाते है क्युकी हरकत से लोग जुट पकड़ पाते है और आखिर वह हमे समज जाते है 

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