Friday, 26 June 2015

कविता ३६. उम्मीद करो

                                                               उम्मीद करो
मुरजाती हुई कली भी हर बार हम से कहती है हम खिले ना खिले हम से खिलने की उम्मीद करो
आसमान में कड़कनेवाली बिजली हर बार हम से कहती है बारिश गिरे ना गिरे उसके आने की उम्मीद करो
हर बार हर कोई हम से कहता है बस यही की हर बार हम से कोई ना कोई तो मन को छूने वाली उम्मीद करो
जिन्दगी के कई राहो पे ऐसे काटे चुभते है की दिल सोचता है क्या जरुरी है हर बार यह कहना की उम्मीद करो
पर जब कोई मिलता है मसीहा इस दुनिया में तो वह कई अलग नयी बाते करता है पर आखिर में कहता है उम्मीद करो
जब कभी जिन्दगी में आगे बढ़ जाते है हर बार सोचते है उम्मीद का क्या करे पर हर बार कोई कहता है उम्मीद करो
हर वह चीज़ जिससे उम्मीद का कोई मतलब भी नहीं वह भी जाते जाते जाने क्यों हमे बस यही कहती है की उम्मीद करो
सोचते थे की हम सिर्फ सोच समजकर उम्मीद करेंगे पर क्या कहे उस काली से जो हर बार कहे  उम्मीद करो
उम्मीद रखना तो आसान नहीं पर हर बार जिन्दगी सोचती है बस यही के कैसे ना कहे हम उस उम्मीद को
जो हर बार हर कोई करता रहता है दूसरों से हर घडी काश कोई उस काली तरह कहे की मुझसे उम्मीद करो
पर लोग तो रखते है उम्मीद वही जहाँ उनको कुछ भी करना ही नहीं खुद से तो कोई उम्मीद नहीं पर दूसरो से बस उम्मीद करो
याद रखना दोस्तों यह राह सही नहीं जिस पर आपको मिलेंगे गलत मंजर सभी खुद से करनी है तो उम्मीद करो
दूसरों से करो तो वह गुजारिश हो क्युकी गुजारिश पूरी होती है तो अच्छी बात सही पर उस पर हमारा हक़ तो नहीं तो उम्मीद करो
पर वह खुद से करना तभी जिन्दगी में आयेगा संभलकर चलना हर बार हमसे कहते है सभी खुद से हमेशा अच्छे की उम्मीद करो 

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