Saturday 27 June 2015

कविता ३७. चुपचाप

                                                                         चुपचाप
हम तो हर बार कुछ ना कुछ कहते है पर कई लोग सिर्फ जिन्दगी में चुपचाप रहते है तो हर बार हम यही सोचते है जिन्दगी में कई नयी बाते कुछ लोग सोचते रहते है
जो लोग कुछ कहते है उन्हें समजना तो आसान होता है मुश्किल तो वह लोग है जो जिन्दगी में कुछ भी नही कहते है वह सोच तो बड़ी अहम है
पर वह सोच कभी ना लोग कहा करते है हर बार चुपचाप मन में सोचा करते है हर सोच के पार नयी उम्मीद है कुछ लोग उसी में जिया करते है
हम चाहते है काश हम समज पाये उन्हें पर सिले हुए होठ हमे कुछ नहीं समजाते है हम तो यही सोचा करते है की हर सोच नयी बात समजाती है
पर लोग अगर कुछ ना कहे हम जिन्दगी में क्या समज पाते है हर बार जिन्दगी में नया मोड़ पर जब हम जाते है सोचते रहते है की काश हमे लोग भी समजाते
काश वह खुलके कहते बातों को ताकि हम कुछ बाते तो आसानी से समज पाते है सारी सोच हर बार हम जान पाते है वह मन भर के दिल को ख़ुशी देते है
चुपचाप हम हर बार चलते है तो कितनी मुश्किलें हम अपने लिए हर बार सही राह दिखाते है मन में जो बात हमे हर बार ख़ुशी और आनंद देती है
पता नहीं क्यों हम मन में छुपाते है सारी बात हम पर कुछ असर कर देती है हम बस यही बात हर बार हमे ख़ुशी देते है चुपचाप छुपी सोच है
वह सोच हमारी जिन्दगी में नयी राह बताती है चुपचाप छुपी वही राह हमारे लिए काश लोग मुँह से कह देते तो जिन्दगी की कई मुश्किलें काम होती
और हम सही राह को समाज पाते काश चुपचाप रहने की जगह लोग हमें बताते वह क्या सोचते है वह लोग समजाते ताकि वह भी हमे समज पाते
चुपचाप रहने से नहीं सुलझती है जिंदगी बल्कि हर बार हम उसे बिना बजह उलझाते है हम जिन्दगी को सही तरह जीना चाहे तो कह दो जो मन चाहे
सिले हुए होठो से बिगड़ती है हमारी जिन्दगी अगर मन में सही बात हो तो उसे कहने कतराने से हम मुसीबत को बढ़ाते है 

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