Thursday, 25 June 2015

कविता ३४. मंज़िल का मंजर

                                                         मंज़िल का मंजर
कुछ देखी हुई बातों का मतलब नहीं बनता कभी समजी हुई कहानी का कोई मकसद नहीं बनता
यू ही देखते हम उस किनारे के ओर जिसका कोई मकसद नहीं होता जिन्दगी में कई तराने तो है बनते
पर कुछ तरानों का हम से मतलब नहीं होता यू ही जोड़ लेते है खुद को उनसे ताकि मन को तस्सली हो
पर कितनी भी कोशिश करे आसमान हमे हासिल नहीं होता उड़ना है तो उड़ पर दिल इतना ही उड़ना
जितना तेरी किस्मत में लिखा है वरना कुछ भी हासिल नहीं होगा जिन्दगी ने जो दिया है उसे संभालना
इस तरह नहीं चला तो आगे बढ़ना मुमकिन नहीं होगा जिन्दगी तो हमे कुछ देती है और कुछ  छिन लेती है
पर आगे बढ़े गलत दिशा में तो आगे चलना मुमकिन नहीं होगा सारी बाते जो हम हर बार कहते है
वह जरूरत पे दिल को समजाना मुमकिन नहीं होगा तो वक्त रहते ही रोक लेते है इस दिल को क्युकी
यह दिल काफी वक्त सपनों में रह चूका है और रह ले तो इस दिल को समजाना बड़ा मुश्किल होगा
जो अपने पास है उसमे ही खुश रहे दोस्तों तो ही जिन्दगी को ख़ुशी से जीना मुमकिन होगा
जो शमा रोशनी दे इसे दूर से देखते ही  रहे तो ही अच्छा है दोस्तों क्युकी उसे छूले तो हाथों का जलना ही मुमकिन होगा
संभलकर चलने में ही अक्सर जीत  होती है दोस्तों ज्यादा की लालच से रोना ही सिर्फ रोना हासिल होगा
जब पा चुके थोड़ी खुशियाँ तो क्यों ना उन्हें ही समेटे दोस्तों दिल कहता है शायद ज्यादा माँगने से कही जो पाया है वह तो चुपके से गुम नहीं होगा
जो मिला है उसमे ख़ुशी अक्सर होती है दोस्तों पर जब ज्यादा दिखता है तो क्या उम्मीद रखना मुनासीब होगा
हमे सोच के चलना है हर राह पर हर मोड़ पर क्युकी कितना भी हम कहे हमे कुछ नहीं मिला है पर हमे जिन्दगी से हर मोड़ पर काफी हासिल होगा
उसे खोने की आहट से दिल कुछ इस तरह से डरता है दोस्तों की सोचता है कोशिश का मंजर नहीं होगा
पर फिर वही दिल सोचता है की कोशिश नहीं की तो उपरवाले की देन है यह जिन्दगी उसमे मंज़िल का मंजर कैसे हासिल होगा 

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