Monday 29 June 2015

कविता ४१. जरूरत

                                                                     जरूरत 
एक सोच सी उठती है कई बार दिल में आती है ओर फिर चली जाती है सारे तूफानों से जुंजके एक सोच सी आती है जो हर बार हर राह पर नयी उम्मीद लाती है
उस सोच को थामो जो उम्मीद सी लाती है उस सोच को समजो जो हमे नये किनारे दिखाती है   उन तूफानों से क्या डरना जो साथ वह लाती है 
जब कोई ताकद से घूमता है तो धरती तो हिल ही जाती है उस सोच को समजो जो जीना सीखती है कागज   की कश्ती नई उम्मीद लाती है 
हार या जीत तो हर बार किस्मत ही लाती है पर मेहनत तो हर बार हमे ही करनी पड़ती है उस सोच को थामो जो उस मेहनत को सीखाती   है 
उस सोच को समजो जो हमे तूफानों से दूर नहीं रखती पर उनसे लढना सीखती है सोच तो वह आईना है जो दुनिया दिखाती  है 
पर हर बार सही नहीं कभी कभी गलत ओर से भी दिखता है उस सोच को थामो जो सही राह पर चलती गिरने पर भी संभलना सिखाती है 
सोच तो ऐसी हो जो आगे बढ़ना सिखाये मुसीबतों में भी हमें खुशियों के दे साये जो पिछे हटना सिखाये वह सोच ही गलत है जो कश्ती को खुद ही डुबाये उस सोच में क्या दम है 
सोच तो ऐसी हो जो किनारों से नहीं तूफानों से लढना सिखाये क्युकी किनारों पे नही मिलते कोई दिलचस्प साये तो वह सोच जगाओ जिस में उम्मीद बसी है 
सोच तो वह हो जिस से दुनिया बदलती है दूसरों से पहले अपनी दुनिया को ही समजो वह सोच जगाओ जिस में अपनी जिंदगी बसी है 
सोच वह रखो जिस में खुशियाँ तो मिले पर सोच वह भी हो जो सही राह पर चले सोच वह जगाओ जिस पे रोशनी भी है सोच वह राह दिखाती है जिस में ख़ुशी भी है 
पर कभी कभी सोच तूफानों से लढ़ती एक कश्ती है तुम वह सोच जगाओ जो खुशियाँ दे पर याद भी रखना की उन्हें दूसरो से कभी छिनना नहीं है 
वह सोच जगाओ जो जीना सीखा दे उस सोच को अपना बनाओ जो आपको खुशियाँ बना के जिंदगी में बार बार दे क्युकी सच्ची खुशियाँ ही एक सोच की जरूरत है 

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