Tuesday 29 March 2016

कविता ५८९. मन के पेहलू

                                                        मन के पेहलू
मन के एक छोटेसे कोने मे जीवन के कई रंग जिन्दा रहते है जिन्हे हम कभी समझना चाहते है कभी बिना समझे ही चुप रहते है
मन के हर कोने मे जीवन कि धारा को हम परख लेते है मन के हर हिस्सों से हम जीवन के कई किस्सों को हम अक्सर पढ लेते है
मन को परख कर हम जीवन को समझ लेने कि कोशिश मे हर बार हम आगे चलते रहते है जिसे समझकर आगे जाना होता है
उस मन के हर किनारे मे जीवन के कई पेहलू अक्सर जिन्दा रहते है जीवन मे हर बार खुशियों कि सौगाद कई दफा दे कर जाते है
मन के अलग अलग पेहलू मन कि दिशाए बदल देते है मन को समझकर जीवन के किनारे बदलकर आगे चलते रहते है
उम्मीदों के सफर पर हम कई तरीकों से जीवन को समझकर ही तो आगे चलते है मन मे कई पेहलू कई पडदों मे छुपे रहते है
हर पेहलू को जीवन कि जरुरत बनाकर हर बार जिया हम करते है जीवन को मन से हर बार ताकद दिया करते है हम आगे चलते है
मन के सारे पेहलू अलग अलग होते है जिन्हे हम चुपके से जिया करते है पर आजकल सोचते है कि क्यूँ चुपके से जिया हम करते है
जब हमे हक है उन खुशियों को जीने का जाने क्यूँ  उन्हे हम घूटघूट के जीते रहते है उन्हे कहाँ समझ पाते है उनसे ही किनारा करते है
मन के कई पेहलू हम अक्सर समझते रहते है कभी किसी राह पर तो कभी किसी राह पर चलने है पर सवाल तो बस यह है कि हमे हक है
फिर भी हालात कि बजह से हम चुप रहते है हम जीवन मे सबकुछ तो सहते रहते है नई दिशा मे हर बार चलते रहते है

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