Tuesday, 15 March 2016

कविता ५६१. दिल का गुस्सा

                                                     दिल का गुस्सा
क्या कहे कोई कुछ धमका दे मन सह नही पाता रोकना तो चाहता है खुदको पर मुँह रुक नही पाता कह देता है मन भी क्योंकि मन चुप नही रह पाता
हम जानते है कि आग से आग बढती है पर पानीकी तलाश मे रुकना पडता है थोडा मुश्किल है हो जाता जीवन मे आँधी से गुजरना आता है पर गुस्से को पी जाना नही आता
कोई गलती से कितनी भी बडी चोट दे जाए तो उसे सहना हमे है आता पर समझकर मारा हुआ कागज भी हमे पत्थर है नजर आता
जीवन को कोई खेल समझकर खेले पर हम उसे किताब समझकर पढते है और किसी भी पढी हुई किताब फेक देना हमे नही आता
जिसे डर लगता है जीवन मे उस हर एक चीज से लढना हर बार हमे है भाता तो कोई धमका दे तो बिना जवाब के आगे बढना हमे नही आता
जिस सोच मे शांती हो उसी पर चलने कि चाहत है पर अगर कोई हमारी राह को काटे तो जाने क्यूँ शांत रहना हमे नही आता
कई बार समझा लिया इस मन को कि तू रुक जा थप्पड का जवाब थप्पड नही होता इसलिए वह रुका है पर गुस्से भरी आँखों को वह रोक नही पाता
जीवन मे कई बार सुनी है लोगों कि कैसी बाते कि समझ गये है हम उपरवाला ही जिन्दगी और मौत है देता इसलिए डरना हमे नही भाता
जीवन मे धमकाना तो हर किसी को आता है जो मुसीबत मे साथ दे वह मुश्किल से मिल पाता है ऐसे इन्सान के खिलाफ दिल कहाँ कुछ समझ है पाता
पर फिर भी एक बार कुछ कह देने पर दिल पीछे हट जाना चाहता है क्योंकि कि हमारा दिल हर बार गलत सोच को रखता है दिल उसे सही रखने कि उम्मीद है पाता

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