Wednesday 14 October 2015

कविता २५५. दिल से समजना

                                         दिल से समजना
कैसे हम समजे जीवन को जिसे हम दिल से समजना चाहते है यह सवाल हम जाने क्यो हम पूछते है जब जीवन को पेहचान भी हम लेते है जीवन के रंगों का हम हर बार परख लेना जानते है
जीवन के अंदर हर बार समज कर जीवन को हम उसे अंदर से भाप लेना जानते है जीवन कि हर सोच को परख कर समज लेना हर कदम पर हम हर बार अच्छे से जानते है
जीवन कि अलग सोच है जिसे परखना और समजना हर बार हम चाहते है सोच को परख के आगे बढ़ना हम चाहते है जिसे चाहते है हम दिल से उस सोच को भी समज लेना जानते है
पर फिर मन से इन्कार कर के उस सोच को ही बार बार समजना हम चाहते है जीवन कि जिस बात को हम मन से समजे उस बात कों हमे शायद मन को पूछनी ज़रूरी है
जीवन कि हर जसबात को दिल से परख लेनी ज़रूरी है जो सोच हमे ख़ुशियाँ दे जाये उसे परख लेना ज़रूरी है जीवन को हर सोच को समज लेना बहोत अहम और ज़रूरी है
धीरे धीरे हर कदम पर जीवन को जीना तो हमे अपने ही दम पर है पर फिर भी जाने क्यों जीवन को दूसरों के सहारे समज लेना हम जानते है जीवन कि हर बात को मन से तो जानते है
उसे समज लेना हर बार ज़रूरी होता है मन के अंदर कि बातें हर बार परख लेना ज़रूरी नहीं होता है जीवन कि हर मोड़ को मन से समज पाना ज़रूरी लगता है
मन कि हर बार सोच अलग ही होती है जिसे समज लेना जिन्दगी हर बार हर मोड़ पर चाहती रहती है अगर हम जीवन को समजे तो उसमें अलग राह अक्सर दिखती है
मन कि बदलती सोच से जीवन तो हर बार बदल जाता है हर कदम मन के अंदर हम अलग से जीवन को समज लेते है उस सोच को जो हम समजे तो ही मन को रोशनी मिलती है
मन के अंदर ही जीवन कि रूह हर बार छुपी रहती है जो जीवन को ख़ुशियाँ और उम्मीदें देती है जीवन कि हर अच्छाई और सच्चाई सिर्फ़ हमारे मन मे हर बार छुपी रहती है

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