Monday 5 October 2015

कविता २३६. दोनों मंजिले

                                                               दोनों मंजिले
रास्ते तो अलग होते है पर हमारी मंजिले फिर भी एक ही लगती है बस उंचाई को छूना चाहते है पर यह समज मे नहीं आता है कि उन्हें हों रही है ज़मीन से इतनी नफ़रत क्यूँ
आख़िर ज़मीन ही चलना सिखाती है गिर जाये तो थाम लेती है उस जीवन से जाग रही है ऐसी नफ़रत क्यूँ कि आसमान मे उड़नें कि कोशिश मे ज़मीन लगती है जंजीर क्यूँ
अगर रास्ते समज भी ले तो जिन्दगी बनती नहीं जब हम आसमान कि चाहत मे ज़मीन को छोड देते है आसमान कि उम्मीद अक्सर बच सकती नहीं है पर फिर हम ऐसा करते है जाने क्यूँ
जीवन कि मंजिलों को समज लेते है वह हर बार जीवन को साँसें दे जाते है पर अगर हर कोई एक ही मंज़िल माँगे तो मंजिलों के साथ किनारे भी हर बार बदल जाते है किसी ना किसी को दुःख दे जाते है तो हम एक ही किनारा माँगते है क्यूँ
रास्ते तो अक्सर एहसास देते है जिनके अंदर जीवन का मतलब हम समज लेते है पर जिन्दगी के अंदर सोच रखते है सिर्फ़ मंज़िल के बारे मे हर बार क्यूँ
हमे जिस ज़मीन ने संभाला है उसे भी संभाल लेना ज़रूरी है यह भी याद रखकर हम आसमान को चाहे उन्हें समज लेने कि हर बार एक चाहत होती है क्यूँ
जीवन मे ज़रूरी है दोनों को चाहना पर लोगों को चुन लेने कि आदत है जब दुनिया मे पानी कि तरह हम साँसें लेना हमेशा होता है ज़रूरी तो दो चीजो मे से चुन लेने कि लोगों को आदत है क्यूँ
ज़मीन और आसमान दोनों के पास होती है अलग तरह कि ताकद जो जीवन पर असर करती है पर दुनिया को दो रंगों मे बटती है दोनों के अंदर अलग अलग काम होते है दुनिया को काम कम करने कि आदत है क्यूँ
दोनों खयालों को चाहे वही सही किसम की चाहत है तो चाहो आसमान को और जमीन को उसमे चुनने की जरूरत है क्यूँ 

No comments:

Post a Comment

कविता. ५१५२. अरमानों को दिशाओं की।

                            अरमानों को दिशाओं की। अरमानों को दिशाओं की लहर सपना दिलाती है उजालों को बदलावों की उमंग तलाश सुनाती है अल्फाजों ...