Saturday, 21 November 2015

कविता ३३०. माटी का घर

                                            माटी का घर
जब जब माटी को छू लेते है हर बार याद हमे बचपन कि आती है तब नहीं डरते थे किसी बीमारी से उस माटी मे कूदते थे गीली माटी को उठा उठा कर माटी के घर बनते थे
कल टूट जायेंगे इस सोच से कभी थोड़ासा डरते थे तो बूढ़ी काकी से कहकर ख़याल रखो उनका हम आगे बढ़ जाया करते थे क्या तब वह मेहनत नहीं थी
ना जी मेहनत तो खूब थी क्योंकि धूप मे साथियों संग घंटों बैठ कर उन्हें बनाया करते थे सर पे कोई हात घुमाये तो हात जले ऐसे सर धूप मे गरम हो जाया करते थे
माँ कि कितनी पुकार पर भी हम कहा वापस जाया करते थे हर बार अपने पसीने से माटी को भीगो लिया करते थे और फिर भी मुस्कुरा लिया करते थे
तब कहाँ परवाह थी किसी ओर चीज़ कि बस वह घर बनाया करते थे चाहे सारे साथी क्यूँ ना गुम हो जाए जब माँ मनाने ना आये हम तो बस वह गुड़िया और वह घर बनाया ही करते थे
तब एक अलग जिद्द थी जिसमें हम जिया करते थे पर कभी कभी लगता है हम आजकल फिर से मन मे उस जिद्द को ही ढूँढ़ा करते है जो फिकर नहीं करती थी क्या होगा हमारा इनाम बस काम किया करती थी
चाहे हम कितना भी सोचे वह घर जीवन को मुस्कान दिलाया करते है बिन सोचे ही हम जी लेते है उस सोच को जिसे हम जीना चाहते है बिन हार जीत को सोचे फिर से हम जीना चाहते है
फिर से पुरानी बातों को समज लेना चाहते है उन बातों मे ही जीवन को हर कदम जीना चाहते है उस सोच को समजे तो बस ख़ुशियों मे जीना चाहते है उस ओर जाना चाहते है
जिसमें प्यार के अलावा कोई हमे रोक ना सके हम समजे जीवन को अपने मन से माटी से ही हम अलग अलग घर बनाते थे तब अक्सर अगले दिन ही वह टूट जाते थे
फिर भी उन घरों को हम बनाते थे पर आजकल जाने क्यूँ हम कतराते है हार के डर से जीत को पीछे छोड़े जाते है पर अब हमने सोचा है फिर वह जिद्द हम चाहते है इस बार माटी के घर को बनाकर खुद संभालना चाहते है

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