Friday, 20 November 2015

कविता ३२९. हर मोड़ अलगसा

                                         हर मोड़ अलगसा
जब जब जीवन को समजा हर मोड़ अलगसा लगा है जीवन कि धारा को हमने जीवन मे हर बार समजा है जब मोड़ अलग दिखता है जीवन उसे अलग तरीक़े से ही परख पाता है
जीवन के हर मोड़ पर हमने नया जीवन देखा है उसे चाहे या ना चाहे उसे परखना सीखा है मोड़ के अंदर अलग चीज़ें होती है मोड़ मे उसे जीना हर बार कुछ अलग ही पड़ता है
मोड़ के अंदर अलग सोच को जो जिन्दा रखता है मोड़ मे समजना ज़रूरी होता है मोड़ मे जीवन का मतलब समज लेना अहम होता है मोड़ जिस पर जीवन आगे आता है
उस मोड़ को समज लेना जीवन को मक़सद देता है क्योंकि मोड़ पर जीवन जिन्दा रहता है मोड़ पर ही दुनिया का नया बसेरा दिखता है मोड़ जो जीवन को बनाता है
वही तो जीवन को जिन्दगी दे जाता है मोड़ पर जीवन जो जिन्दा रह जाता है वह मोड़ के अंदर दुनिया जो जिन्दा रहती है उसे समज लेना जीवन कि ज़रूरत होती है
मोड़ तो दुनिया को मतलब दे जाते है हर बार उनकी जीवन मे ज़रूरत होती है जिस मोड़ पर हर बार दुनिया जिन्दा होती है उस हर मोड़ तक पहुँचे यही हर बार जीवन कि ज़रूरत होती है
मोड़ ही जीवन को समज देते है पर हम हर मोड़ पर नहीं पहुँच सकते यह लोग कहाँ समज पाते है वह हम से हर मोड़ पर होने कि उम्मीदें रखते है हमे कहाँ समजते है
उन लोगों कि अगर हम परवाह करते है तो जीवन मे एक भी कदम कहाँ जी पाते है हम अगर कुछ करे तो बस इतना हो कि हम जीवन मे तसल्ली से आगे बढ़ते है
हर मोड़ पर जीवन के हर दिशा को हम हर बार समज लेते है उसे हमारे जीवन का हिस्सा समज कर परख लेते है मोड़ पर ही हम अपना जीवन जीते रहते है
पर सारे मोड़ हमारे नहीं होते पर क्यूँ अफ़सोस करे हम जब जीवन के जो मोड़ हमारे होते है वही हमारे लिए काफ़ी होते है हम उन्हें क्यूँ कम समजे सिर्फ़ इसलिए क्योंकि लोग हमे बताते है

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