Sunday 17 April 2016

कविता ६२७. अपना

                                                   अपना
कभी कोई हमारी सुनता है तो कभी हम उनकी सुनते है जीवन के हर रिश्ते ऐसे ही तो बनते है सुनी हुई हर बात को करे तो कभी हम कर भी नही पाते है
पर अपने तो वही होते है जो मुँह तो बना लेते है पर बाद मे बात को अनदेखा भी करते है क्योंकि जीत और हार दोनों मे अपने तो अपने ही रहते है
हम जीवन को कई हिस्सों मे जीते रहते है पर हर बार हम कहाँ जीवन मे किसी कि सुनकर चलते है आगे जाते रहते है
जीवन के अंदर कि कई बाते हम मन से सुनते है पर कुछ बाजीयाँ हम जीत लेते है कुछ मे हम हारते है और अपने यह बात समझ लिया करते है
कुछ बात जिसे हम समझ लेते है उन्हे हम परख लिया करते है कई बाते जो अनकही हो उन्हे समझकर अपने हार को भी भुला दिया करते है
जीवन का हर पल हम बात समझकर आगे बढते है जिन्हे परखकर आगे जाये उस सोच को भी बिना समझे हम आगे बढ जाया करते है
कुछ कह तो देते है लेकिन कुछ बातों मे हम गलतियाँ भुला दिया करते है हम जीवन कि हर धारा को समझकर जीवन जी लिया करते है
जो बात हम मन से कहते है उस बात को तरह तरह से हम समझ लिया करते है हम चाहते है खुशियाँ जीवन मे पर अपने के आखिर चुपके से गमों को भी जीवन मे ले लिया करते है
उस जीवन को कैसे भुले जिसमे हमारे अपने है तो उस जीवन को जीने के खातिर हम गमों मे भी आसानी से खुशियाँ ढूँढ लिया करते है
हम जीवन मे अपनों के खातिर सब लिया करते है पर अगर कोई गलत राह पर जाने को मजबूर करे तो उस अपने को हम अपना नही कहाँ करते है

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