Saturday 9 April 2016

कविता ६११. कुदरत कि कोई बात

                                         कुदरत कि कोई बात
हर बार कोई नई बात कुदरत मे होती है उसे समझकर उसे संभलकर परख लेने कि जरुरत होती है कुदरत के हर एहसास मे कोई नई बात छुपी रहती है
कोई तम्मना कोई एहसास वह देकर कुछ इस तरह से आगे निकल जाती है कि दुनिया हर बार खुशियों कि कहानी बदलकर हर राह अलगसी बनाती चली जाती है
कुदरत के हर एहसास मे जीने कि दिशाए छुपी होती है उन्हे परखकर समझ लेते है तभी तो दुनिया हमारी खुशियाँ छीन कर ले नही पाती है
क्योंकि उस कुदरत कि गोदीमे तो हमारी सच्ची खुशियाँ छुपी होती है दुनिया उसे कई हिस्सों मे बाँट तो सकती है लेकीन हमसे छीन नही पाती है
कुदरत जो तय करती है वह बात तो हो कर ही रहती है बस दुनिया कई बार उसे समझ लेने मे और अपनाने मे बडा वक्त लगाती है
कुदरत कि ताकद को दुनिया कहाँ आसानी से मान लेती है वह अपनी कही बात पर ही अक्सर अड जाती है दूसरे कि बात सुन नही पाती है
कुदरत कि हर बात बदल देने कि ताकद पर दुनिया मे नही होती है पर कुदरत से जंग करने कि आदत दुनिया मे अक्सर होती है
कुदरत के कई हिस्सों को समझकर आगे जाने कि जरुरत जीवन मे हमे हर बार होती ही है पर कुदरत के कई हिस्सों को दुनिया कई बार मानना नही चाहती है
कुदरत के हर अंग मे अपने बात को कायम रखने कि ताकद कितनी है यह बात दुनिया जीवन मे कभी समझ नही पाती है जब तक वह हार नही सहती है
कुदरत के करिश्मों से हारना दुनिया कि किस्मत होती है पर दुनिया फिर भी जाने क्यूँ हार मिले बिना हार मानना नही चाहती है कुदरत के सही को गलत दिखाना चाहती है

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