Tuesday, 3 May 2016

कविता ६५९. नदीयाँ या किनारा

                                              नदीयाँ या किनारा
हर नदी का किनारा तो होता ही है उस नदीयाँ मे लहरों को समझ लेने कि हर बार हर पल एक अजीब जरुरत होती है जो अलग एहसास देकर जाती है
नदीयाँ को समझकर आगे चलना ही तो अक्सर हमारी किस्मत होती है पर हर बार हमे समझा लेती है किनारा ही तो हमारी चाहत होती है
पर फिर भी अक्सर जाने क्यूँ नदीयाँ मे जाने कि हमारे मन को चाहत होती है कश्ती ही हमारी जरुरत बनती है जो हमे आगे लेकर चलती है
नदीयाँ मे उतरकर जाने कि हमे जरुरत होती है कभी कभी लहरों मे हमारी जरुरत नजर आती है उस पल किनारे कि चाहत नही होती है
हमे जीवन को परख लेने कि आदत तो होती है पर किनारे को चाहे या नदीयाँ को वह उस पल कि चाहत होती है जिसे परखकर चलना जीवन कि जरुरत होती है
किनारों के साथ साथ नदीयाँ कि भी दुनिया मे जरुरत होती है अहमियत होती है क्योंकि अलग अलग तरीके से जीना हमारी जरुरत होती है
नदीयाँ और किनारे दोनों मे दुनिया कि जरुरत होती है जिन्हे परखकर चलने से ही तो दुनिया मिलती है दोनों पर चलने कि आदत हमे होती है
जीवन मे तरह तरह कि चीजों को परख लेने कि हर पल जरुरत होती है जो हमे हर मोड पर अलग मतलब दे जाती है जीवन का मतलब बदलती है
हमे नदीयाँ और किनारे दोनों को पाने कि अजबसी चाहत होती है जो जीवन कि कहानी हर बार हर पल बदलती जाती है हमे दोनों सहारों कि जरुरत होती है
हम खुद ही नही बता  पाते है कब हमे किस चीज कि चाहत होगी जो हमारे जीवन कि कहानी को आगे बढाने कि ताकद होनेवाली है
बडी अजीब हमारी किस्मत हम खुद ही बता सकते है कब हमारी कौनसी चाहत है जो हमारी किस्मत बनकर हमारी दुनिया बदल पाती है

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