Friday, 20 May 2016

कविता ६९३. धरा से जुडी उडान

                                                       धरा से जुडी उडान
पता नही चलता है जीवन मे कब मन क्या चाहता है मन को परिंदा बिना बंधन के बंधता जाता है तो कभी वह दूर गगन मे उडान लेना चाहता है
पर उसकी डोर तो धरा पर ही बंधी है वह कहाँ आसमान को छू पाता है जिस बात को समझकर जीना जरुरी होता है
हमे पतंग कि जगह कुछ अलग बनना जरुरी होता है पर हर कदम पर खतरे से बचाकर चलना चाहे वह कहाँ आगे बढ पाता है
खतरे को परखकर आगे बढना जीवन कि जरुरत होती है जो हमे हर पल अलग राह दिखाती रहती है जो उम्मीदे देती है
जो मिटी से बिना जुडे ही आगे चलते जाये तो जीवन को दिशाए आगे बदलकर मिलती है जिनकी हर कदम पर जरुरत होती है
हम आसमान मे उडना तो चाहते है पर खतरे कि हमारे मन को कहाँ इजाजत होती है जो आगे बढकर हमारी दिशाए बदलकर चलती है
उडना हो अगर समझ ले तो उसमे खतरों कि पहले इजाजत लेनी जरुरी होती है जिसमे जीवन कि अलग सोच जुडी होती है
धरती को परखकर ही तो जीवन कि शुरुआत होती है जो जीवन को हर कदम पर नई साँसे देकर आगे बढती जाती है
उडना ही तो जीवन को समझाकर आगे बढाती है पर उसमे खतरों को समझकर आगे बढने कि जरुरत हर बार अहम होती है
बिना खतरों कि जीवन मे उडान भरने कि जरुरत होती है पर जीवन मे ऐसी कोेई उडान नही होती है खतरा तो हर उडान का एक साथी है 

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