Friday, 13 May 2016

कविता ६७९. बूँद बन जाना है

                                                      बूँद बन जाना है
बूँद बूँद से कहते है कि सागर बनता है पर सवाल तो यह है फिर एक बूँद बनने से इन्सान क्यूँ डरता है सबको सागर जैसा बनना है
पर हर कोई बूँद नही पूरा सागर बनना चाहता है यह तो मुमकिन नही है पर इन्सान हर पल यह बात कहाँ समझता है
जीवन मे बूँदों से ज्यादा सागर बनने कि चाहत वह रखता है और उसी चाहत मे वह कई बार सागर को जीवन मे खो देता है
बूँदों के अंदर दुनिया को समझ लेने कि जरुरत वह हर पल रखता है बडा करने कि चाहत को ज्यादा बढाकर छोटीसी चीजे भुला देता है
जीवन मे छोटी बूँदों से ज्यादा अहम हमे सागर लगता है क्योंकि दुनिया समझाती है और उसे मानकर जीवन आगे बढता है
छोटीसी बूँद सागर से भी अहम तो होती है क्योंकि वही तो हर बार सागर को बनाती है जीवन को बूँद से समझ लेना तो जरुरी होता है
जीवन तो छोटीसी बूँद कि शुरुआत होता है जो जीवन को समझ तो लेती है पर कहाँ दुनिया उसे परखकर आगे चल पाती है
बूँदों से ज्यादा सागर ही जरुरी होता है पर यह सोच तो गलत राह पर चलनेवाला ही देता है क्योंकि बूँद बनना भी जीवन मे बडा काम लगता है
सागर को परख लेना ही बूँदों को समझ लेना ही जीवन को साँसों कि जरुरत होती है उसी तरह से बूँद ही तो सागर कि पेहचान होती है
बूँद से हर चीज कि शुरुआत होती है जो जीवन को आगे लेकर जाती है जिसकी जीवन मे शुरुआत होती है तो ही जिन्दगी बनती है
जो बूँद बनना चाहे जिन्दगी उसकी ही होती है क्योंकि उसके लिए ही तो अक्सर सागर बनते रहते है जो खुशियाँ देते है

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