Wednesday, 22 July 2015

कविता ८७. चीज़ों को समजना

                                                            चीज़ों को समजना
हर बार जब चीज़ों को समज लेते है उनमे से कई मोड़ तो आते है जब जब हम उम्मीदों के सहारे चलते है
हर बार नये नये तराने बदलते रहते है जिनमे नये नये अफ़साने बनते रहते है बड़े मजेदार पर होते है
वह तराने जिनके सहारे हमें किनारे हर बार मिलते रहते है चीज़ों में होती है नयी नयी दिशाये मिलती है
चीज़ों में तो हम कई बार बाते होती है हर चीज़ को समजने की जरूरत होती है पर हर बार चीज़ों को कहा समजना चाहते है
चीज़ों के अंदर हम हर बार नयी सोच तो मन को सीखते है मन के भीतर नयी नयी सोच जो हमें जगाती है उन चीज़ों में तरह हम नहीं जाना चाहते है
चीज़ जो मन को छू लेती है हर चीज़ के अंदर नयी नयी बाते जो मन को हमें कई बार छू जाती है वह छुपी हुई होती है
हर बात को हर चीज़ को जब हम समजने की कोशिश करते है वह सिर्फ वही चीज़े जिनके अंदर हर बार नयी उम्मीद होती है
कुछ चीज़े जो हमें उम्मीद नहीं देती कभी कभी हमें जिन्दगी में वह चीज़े भी सुननी पड़ती है पर जो चीज़े हमें छू लेती है
पर कुछ चीज़े जो मन को बुरी लगती है चीज़ों में नयी नयी सोच हम पाते है सारी चीज़े जो बुरी लगती है वही चीज़ हम समजते है
बुरी चीज़े भी जिन्दगी पर असर करती है पर हर बार हम यह बात नहीं समजते है हर बार हर मोड़ पर कोई असर होता है
चीज़े बुरी होती है वह बड़ी जरुरी लगती है क्युकी चीज़े बुरी होती है पर चीज़े दुनिया पर असर कर जाती है  तो हर चीज़े बुरी होती है
पर वह भी कभी कभी जरुरी होती है तो जीवन में बुरी बाते अहम और जरुरी होती है तो उन बातों से भी खुशियाँ बनती है तो बुरी बातों को समजो वह भी जरुरी है 

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