Thursday, 23 July 2015

कविता ८९. दुःख की जगह खुशियाँ

                                                       दुःख की जगह खुशियाँ
काश हर कोई हमें समज लेता पर जिदंगी में ऐसा नहीं होता अगर यह नहीं हो सकता तो काश हम ही दूसरों के मन का समज लेते काश उन्हों ने आसान इशारे कर दिये होते
पर मान लो अगर वह आसान इशारे भी करते तो भी क्या हम चीज़ को समजते माना की ज़िन्दगी में नये नये किनारे भी मिलते पर अफ़सोस तो इस बात का होता है की वह इशारे ना समज पाते
मन में हर बार नये किनारे भी होते पर जिन किनारों को समजे वही अफ़साने हमें दुःख देते और हम किनारों को अपना ही नहीं पाते
हम जानते है की सच को जानकर भी हम अनजान बने थे हमारे जिन्दगी में इसी बजह से कई फ़साने बने होगे जिन्दगी में भी उम्मीदों के सहारे पहले ही बने होते
जो हमारे सच को तभी समज चुके होते कभी कभी लोग आगे बढ़ जाते है वह लोग हमें समज ही नहीं आते है क्युकी हम तो सिर्फ पुराने अफ़साने है जीते
कई कई बार इशारे समजे हुए होते है पर हम उन्हें मन से बस समजना नहीं चाहते हर बार जो हम सोचते है वह अफ़साने भी जिन्दा ना होते
पर काश के उन फसानों में हम जीये होते तो जिन्दगी अंदर कई किसम के दुःखों के तराने नहीं बने होते फिर भी जिन्दगी के अंदर हर रोज नये सिलसिले ना होते
काश जीवन में नयी सोच के फ़साने मन में ना होते अगर हम दुसरे के मन को समज लेते और उसकी बात को मान लेते
तो शायद मन में कितनी तरह के दुःख की जगह हम खुशियों को रखते मन को हर बार हम रोज अपने  खुश रख पाते
खुशियों को हर बार जब हम दुनिया में महसूस कर लेते है तो लगता है की काश उसी वक्त हम हालात को भी समज लेते
और आसानी से उन्हें जीवन में अपनाते ताकि हर बार हम हस के आगे बढ़ लेते और जिन्दगी के हर मोड़ पर है के जी लेते

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