Friday, 3 July 2015

कविता ५०. सोच को समजना

                                                                 सोच को समजना
कुछ लोग हमे जो मिलते है हम उन्हें नहीं समज पाते है पर फिर सोचते है जाने दो हम क्या सोचे और हम
क्या समज पाये
जिन्दगी बड़ी अजीब है उस से बड़े है उनके साये सारे ओर जब हम घूमे हमारी सोच उसे आसानी से ना समज पाये
जिन्दगी के कई मोड़ हमें बार बार दिखलाए और हर मोड़ पर जब हम चले तो हर बार हम ना समज पाये
के क्या चाहते है और हम क्या पाये
जब जब हम किसी राह पर चले तो हम आसानी से समज नयी पाये की जिन्दगी में नयी सोच हम हर बार नहीं समज पाये
आसानी से जो हम समजे वह सारी बाते हम ना समज पाये क्युकी जिन्दगी में आसान चीज़ को अपनी लालच और डर के मारे बदले जाये
सोच जो हर मोड़ सही है उस सोच को भी हम नहीं समज पाये सोच में कही बाते होती है जो हम नहीं समज पाये
सोच में तरह तरह की चीज़े छुपी हुई है जिन्हे हम कभी ना समज पाये
सारी सोच जिनके अंदर हम बार बार नयी मन की निशानी दिल को समजाये हर बार जो सपनें हमने देखे उन्हें हम बार बार ना समज पाये
शायद आसान होती जिन्दगी अगर उसे हम आसानी से जी जाये पर हमने ही कुछ ज्यादा ही सोच कर उसमे बहोत मुश्किलें पायी
पर फिर भी हर वक्त हमारी रही सोच है लगातार पायी के हमने गलत चीज़ नहीं की थी जिन्दगी ने ही मुश्किलें लायी
सो हर बार जब हम आगे बढ़ते जाये कुछ इस तरह से आगे चले की अपनी मुसीबत अपने आप ना समज पाये
काश के हम समज लेते की इसी सोच से हम खुशियाँ ना पाये
हमारी मुश्किल बस यह की हम बहोत सोचते है किसी राह पर चलने से पहले की क्या हम इस राह पर कभी जीत भी पायेगे 

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