Saturday, 4 July 2015

कविता ५१. राह ढूढ़ना

                                                                राह ढूढूना
उस राह पऱ कुछ और चाह थी पर हम अब समज चुके है कितनी गलत वह राह थी बचपन से हमे नये नये रास्ते तलाश ने की चाह थी 
जिसे भुल चुके थे हम पर जब फिर से सोचा तो मन में वही उमंग थी क्युकी हर एक राह पर हमे कई मोड़ दिखते है और हम समजे वही चाह थी 
राह में कई तरह की सोच हमे उसे ढूढ़ने की चाह अभी भी थी बार बार हम जो सोचते रहे नयी राह पर चलने की बाते तो फिर मन में एक चाह थी 
नयी नयी राहों की खुशबु में आँखों को एक नयी रोशनी दिखाते है हर रोज जब हम ढूढ़ते है वह राह बड़े मजे से फिर से बचपन को जीते थे
बार बार जब हम कई राहों से हम जब गुजरते है जब हम पाते है कई राहों पर हम नयी राह ढूढ़ते रहते है और  हर बार हम नयी राह समजते थे
सारी राहे हमे जिन्दगी में खुशियाँ देती है अगर हम हिम्मत जाते हर राह पर नयी सोच हम हर बार हमारी जिन्दगी पाते थे
आज भी बस वही कोशिश हमे खुशियाँ देती है तरह तरह की राहे हमें खुशकिस्मत बनती है हम हर बार यही सोचते है की बचपन की खुशियाँ सिर्फ बचपन की ही होती है
पर जब आप बड़े हो जाये तो भी हमारी जिन्दगी में वही खुशियाँ देती है तो बड़े होने पर भी राह ढूढ़ना बड़ा मजा देती है
बचपन हो या हो बुढापा वह राह हमेशा हमें भाती है जिस ढूढ़ने में हमे बहोत मेहनत देती है बचपन में तरह तरह चीजे जो हम करते है
वही चीजे हम बड़े होने पर भी करे तो हर बार हम तरह तरह की खुशियाँ अपने जिन्दगी राहे ढूढ़ने से हमारी जिन्दगी में पाते है 

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