Monday 20 July 2015

कविता ८४. लब्जों की यह दुनिया

                                                         लब्जों की यह दुनिया
किताबों के लब्जों में नयी दुनिया दिख जाती है उन लब्जों में ही हर बार खुशियाँ तोफो में आती है और सारी तरह की खुशियाँ मन को छू जाती है
हर लब्ज में हमें कई तरह खुशियाँ जीवन के अंदर दुनिया समाती है पर जब उन लब्जों में हमें नयी दुनिया दिख जाती है
हर बार जब हमे अपनी दुनिया उस किताब में दिख जाती है सारी बाते किताबों में अच्छी नज़र आती है जीवन में भी कभी कभी जब वह खुशियाँ आती है
क्युकी दुनिया में खुशियाँ तो प्यारी लगती है पर कभी वह मुश्किलें भी आ जाती है वह किताबों में तो सिर्फ दिखती है
पर जीवन में कई राज दिखाती है हर मोड़ पर जब सीखे तो मन में नयी उम्मीदे लाती है पर किताबों में तो कई राज सीधे साधे दिख जाते है
हर बात जो मन को छू जाती है वह बाते जीवन में हमें नये नये राज बताती है हम कभी ना समज पाये जीवन में वही राज बताती है
दुनिया में हर मोड़ पर जब हम कोई सोच लाते है किताबों में कई तरह की सोच जीवन में आती है किताब में कई चीज़े मन को छू जाती है
हर बार जिन्दगी में नये नये खयालों को वह सोच जिन्दा  पाती है पर किताब और जीवन में हम अलग तरह की सोच हमेशा पाते है
जीवन में जो समज गये वह किताबों में मुश्किल से समज पाते है पर कभी कभी किताब में आसान लगनेवाली चीज़े मुश्किलें लाती है
सारी चीज़े किताब और जीवन में अलग अलग असर कर जाती है हम नहीं समज पाते क्या किताब  सही है और क्या जीवन के लिए सही कहलाती है
किताबों में लब्ज और जीवन में लब्ज असर कर जाते है लब्ज में कई तरह के असर कर जाती है क्युकी बाते तो लब्जो से होती है
तो उन्हें आगे बढ़ जाने दो पर रहना जरा संभलकर क्युकी लब्ज ही तो जीवन को अच्छा और बुरा हर बार बनाते है  

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