Sunday 19 July 2015

कविता ८२. अनजानी राह पर चलना

                                                      अनजानी राह पर चलना        
अनजानी राह पर चलना कभी कभी हम समज नहीं पाते है क्यों की सारी सोच मन में  कुछ ना कुछ असर कर के छू जाती है
जिन राहों पर चलते है हम उन पर हमारी सोच को नये नये तरीके जो राह पर हमें दिखाई देते है वह सोच हमें समजाती है
वह राह जिस पर हम कोई ना कोई सोच मन के अंदर  रखते है अनजान सोच और अनजान राह पर हर बार हम वही सोच रखते है
जिस में अनजान और अनोखी सोच हम पे असर कर देती है जब जब हम उस राह पर चलते है जिनमे  तरह तरह की सोच हम रखते है
पर एक बात जो हमें खुशियाँ देती है वह कभी कभी अनजान होती है और अनजानी चीज़े मन को हर पल डराती है जो हम सोच रहे है
उसी बात को घूमाती है क्युकी अनजानीसी सोच भी हमें हर पल खुशियाँ दे जाती है जब जब हम उससे डरते है वह सारी चीज़ पुरानी नज़र आती है
अनजानी तरह के सोच हम पर असर कर जाती है हर बार हमें नये नये सपने दिखाती है हम तो बस यही सोचते है की यह सोच हमें उम्मीद दिखाती है
पर बार बार यही सुनते है की हमें नयी उम्मीद उसी राह पर मिल जाती है पर हम जूठ क्यों बोले वह राह तो हम समज जायेगे क्युकी बिना सोचे हम वह राह अपनाते है
जिन्दगी ही है जो नियमों को बदलना सिखाती है हर बार नयी राह दिखाती है और उस राह में उम्मीद दे जाती है क्युकी वही राह तो नज़र आती है
और फिर सारी सीखी सोच पीछे रह जाती है वह सोच जो आगे बढ़ती है जो हमें रोज नये नये किनारे दिखाती है
सही सोच मन को खुशियाँ दे जाती है
अगर लोग खुशियों के लिए बदल जाते है तो हर बार हम अपनी मर्जी से चल पाते है तो क्यों किसीको कुछ कहे जब हम चल पाते है चुन लो सही राहों को क्युकी आप  चुन पाते है 

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