Tuesday 14 July 2015

कविता ७२. अँधियारो में छुपे उजियाले

                                                         अँधियारो में छुपे उजियाले
रात के अँधियारो में भी रोशनी के किनारे है हर बार जब हम मूड के देखे उम्मीदों के सहारे है जब हम सोचते है
अँधियारो के अंदर हम ढूढ़ने रहे उज्जाले के किनारे है जब जब अंधेरे में कई तरह के उज्जाले है पर फिर भी है
काली काली रातों के अंदर कई किसम के सुंदर उज्जाले है काले काले रातों में हमने देखे उज्जियाले है
जो मन को ख़ुशी दे देते है और हर बार मन जगे हुए अँधियारो के किनारे है जब हम आगे बढ़ जाते है
तब भी रोशनी के अंदर कई तरह के उम्मीदों के हर बार सहारे है काली काली रातों के अंदर छुपे उज्जाले है
रोशनी के अंदर सारी उम्मीदे हर बार बसी हुई है उन अँधियारो में भी छुपे हुए कई तरह के सहारे है बस जो उनको ढूढ़ले वही पाता अपने किनारे है
जब जब हम अँधियारो से गुजरे हर बार हमने देखे कई तरह के सहारे है जिनके उम्मीदों में जगे सारे सहारे है
हम हर बार  उस सोच पर रहते है की रोज जिन्दगी में दिखते कई सहारे है पर कभी नहीं सोचा है हमने अँधियारो के पार कई तरह के किनारे है
जब अंधेरे में हर बार दिखते छुपे हुए उजियाले है हम हर पल उनको ढूढ रहे है पर हम कभी समज ना पाये ऐसे ही यह सारे सोच के सहारे है
जब जब अँधियारो से गुजरे मिलते है कई किनारे है उन सारे अँधियारो में मिलते कितने तरह के किनारे है
जब हम सोच रहे है हर बार उसी सोच में दिखते कई तरह के किनारे है हम हर बार चलते है तब हम यही समजते है की अँधियारो में ढूढ़ने हमें उज्जाले है
शायद हम यही सोच रखते है जिस में दिखते कई उज्जाले है सारे तरह के अँधियारो में कई कई तो छुपे हुए उजियाले है
जब हम उनको ढूढेंगे तब मिल जायेगे कई तरह के उज्जाले पर सवाल बस यह होता है उस अँधियारो में कैसे ढूढे वह उज्जाले जो छुपे हुए है 

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