Sunday, 12 July 2015

कविता ६८. रिश्ता

                                                                    रिश्ता
हर बार जो कुछ कहते है आप कुछ सुनते है कुछ नहीं सुनते जिन्दगी में हमेशा ऐसे ही रिश्ते होते है
जिनमे कभी लोग सुनते है कभी अनदेखा कर देते है जो बात वह सुनते है उसे सोच के हम खुश हो  लेते है
पर जो बात  वो नहीं सुनते उनसे अफ़साने बनते है हर बार तो यह मुमकिन नहीं की हम हमेशा सही होते है
कभी हम गलत होते है कभी हम सही होते है पर रिश्ते तो बस वही सही लगते है जिनमे अगर हम गलत हो तो वह हमें समज जाये और उनकी गलती पे हम समज लेते है
हर मोड़ पर अक्सर नये नये मौके तो आते होगे जब हम आगे बढ़ जाते है तो उन मौकों को अक्सर हम नहीं समज पाते है
पर खोते हुए मौको  के संग रिश्तों को तो ना खो दे यह काश कभी कुछ मोड़ पर तो हम कर पाते पर आसानी से आगे तो हम हर बार चल पड़ते है
सारी मोड़ पर जब भी हम उम्मीद से आगे बढ़ जाते है कई बातों को तो पिछे छोड़ जाते है पर कभी कभी वह रिश्ते भी होते है
जिने जाने कब हम पिछे छोड़ जाते है हमें लगता नहीं के हम यह कर चुके है पर उस अहसास से पहले ही छोड़ जाते है
हम कहते है अक्सर हमने तो निभाया था रिश्ता पर हर बार जिन्दगी में आगे बढते हुए हम कई रिश्तों को खो देते है क्युकी शायद हमें सोचने ही नहीं देते है
वक्त ना दे तो चल जाता है सोच ही तो रिश्ता अपनाता है वक्त कम भी मिले तो क्या है एक सोच से ही रिश्ता चल पाता है
पर जिस पल सोच जुदा हो जाये रिश्ते को क्या वह सिर्फ एक दिखावा है सही गलत तो हर पल बदलता है पर रिश्ता वही सही है
जो एक ही सोच को अपनाता है वरना दुनिया में ऐसा लगता है वह रिश्ता ही बस एक बड़ी उलझन बन जाता है 

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