Thursday 9 July 2015

कविता ६१. छोटासा परिंदा

                                                                  छोटासा परिंदा
बड़ा मजा आता है जब हम कुछ सुन्दरसा परिंदा देखते है दिल सोचता है की यह छोटासा परिंदा इतना खुश है
अपनी दुनिया में तो हम क्यों नहीं है
हम क्यों माँगते है इतना सब कुछ अपनी दुनिया में हम खुश क्यों नहीं हर बार जब हम इधर उधर घूमते है जाने क्यों सारी महंगी चीज़े मांगते है
छोटा  छोटा  परिंदा भी जब हमे खुशियाँ दे सकता है हर घडी हमे जाने क्यों बड़ी चीज़ों का इतना इन्तज़ार रहता है जिन्हे दिल चाहता है
हमने  देखा है सिर्फ प्यार भरी नज़र काफी है जीने के लिए पर शायद वही नहीं मिलती इसी लिए सबको बड़ी गाड़ियों का इन्तजार रहता है
प्यार तो नहीं मिलता तो उस भूख को दौलत से मिटा ने कोशिश में है कुछ लोग तो कुछ को लगता है की दौलत से ही प्यार ख़रीदा जाता है
परिंदेने  जो समज लिया उड़ते हुए वह समजने को दिल चाहता है पर फिर भी हर बार यही सोचता है की नयी उम्मीद को पाना चाहता है
क्युकी परिदों को तो हसते हुए देखा नहीं पर हर बार बिना हसे ही वह खुश रहता है और यहाँ ऐसे हालत है अपने दोस्तों की रोज हस के भी हमे रोना आता है
छोटी छोटी खुशियों में जो जीना सिखते है उन्हें बार बार यू ही नहीं रोना आता है पर हम इन्सान बस बडी बड़ी चीज़े चाहते है कुछ इस कदर की दुनिया में मागते है
सबकुछ गलत की हमारी उम्मीद पूरी हो या ना हो हमारी किस्मत में हर बार रोना आता ही है जब हम आगे बढ़ना चाहते है  तो हमे सही रास्त्तो का ख़याल  ही नहीं रहता है
और हमारे दिल को हर बार नयी उम्मीद तो होती ही है पर काश हमे सिर्फ उन छोटे परिदों का इन्तजार होता क्युकी तब शायद  हमे उनका एतबार भी मिल जाता है 

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