Tuesday 21 July 2015

कविता ८६. राह को समजना

                                                             राह को समजना
जब जब हमने देखा लोगों को समजना चाहा समज ना पाये उनको हर बार हमने मन को समजाया की अगली बारी में हम समजेंगे पर ऐसा नहीं होता
सारी बातों को समजेंगे वक्त हमें सब कुछ समजा देता है पर हर बार हम जो  समज जाये इस उम्मीद पर चलते सौ बार उठते है पर गलती से ही तो सीखेंगे पर गलती तो दुनिया में होगी
जो बात दिल से समजे वह हर बार सही नही होती जीने की कई दिशाए है पर हर राह और हर दिशा सही नहीं होती
आप देखो दुनिया में तो बात हम कह दे वह हर बार सही नहीं होती पर जब वह सही होते है और दुनिया नहीं सुनती तो दर्द की कमी नहीं होती
जो हम सच बोले मन से उसे लोग समजे और सब कुछ सही हो जाये यह मन की उम्मीद सही नहीं होती
पर दुनिया में अक्सर यह उम्मीद भी  नहीं होती क्युकी काटो पर चलनेवालों की तो कमी है पर दूसरों को काटो पर चलानेवालों की कमी नहीं होती
वह रोते है हर पल उनकी भी कमी नहीं होती पर अगर हम चले अपने दम पर तो मुश्किलों की दुनिया धीरे धीरे कम है दिखती
जब हम आगे बढ़ जाये तो ही जिन्दगी में नयी राह हमें हर बार दिखाई है देती सारे तरह की सोच हमेशा मन को है छु लेती हर बार जिसे हम समजे वह राह हमेशा  नहीं होती
जो राह हमें मासूमियत दिखा  दे वही राह हमेशा सही होगी कई सोचों को हम समजे वही राह हमेशा ख़ुशी देती है क्युकी हर राह हमेशा सही है होती
राहो पर चलते चलते हर बार तरह तरह की उम्मीद हमें जिन्दा कर देती है वही सोच जो शायद हमें सही उम्मीद है देती
अगर हम उसे सही और से देखे तो सही राह जीवन में खुशियाँ और उम्मीद देती है पर याद रखना दोस्तों वह हमेशा आसान नहीं होती

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