Monday, 6 July 2015

कविता ५६. दिल को समजे

                                                                 दिल को समजे
काश हम जो समजते दिल को तो आसानी होती पर क्या हुआ अगर मुश्किल भी हो तो आखिर अपना दिल ही तो है
अगर उसके लिये हम कुछ तो पल दे ही सकते है जिसने हमे समजा है क्यों उस दिल को ही तनहा रखे यू हम उसे भी कभी वक्त देंगे हर बार यही कहते है
जिन्दगी जो हमें साथ देती है तो कभी धोका भी देती है काश उसे एक बार भी हम अपने दिल से समजा लेते है पर यह तो बड़ा मुश्किल होता है
क्युकी नयी नयी सोच में कोई ना हमारे सोच में दिल की प्यारी सोच हम पाये हर बार जब हम आगे बढ़ते है उम्मीदों में जीते है
हर बार दिल को समजने में जिन्दगी के कई दिन निकले जाये पर फिर भी आखिर यह तो वह दिल है जिस में हम कई ख्वाबों को पाते है
हर बार उसे समजे वह दिल ही हमारे लिए उम्मीद लाये सारे खयालों में दिल के हम नयी सोच हर बार पाये जब जब हम दिल में कुछ सोचते है
दिल दुनिया को नयी नयी सोच मन ले लाये हम चाहते है इस दिल को और उसके अंदर हम उम्मीद पाये हर बार सोचते है
नयी सोच में तरह तरह की सोच हम मन में पाये जो हमारे दिल को बहलाये  दिल तो जो छू लेते है हम क्युकी मन में वह सोच पाते है
दिल में कई सोच जो हम रखते है हर बार दिल को जिंदा रखते है क्युकी वह दिल उम्मीद को जिन्दा रखता जाये उन सनाटो में हस कर वही दिल राह दिखाये जिस पर हम चलते जाते है
तभी तो हम जीत पाते है शांत मन को जो तस्सली दे वह गीत सिर्फ हमारा दिल ही गाये सनाटो में हमारे आँसू पीकर हमें नयी सुबह दिखाता है
तो इसीलिए उस दिल के हर उम्मीद पर हम जिंदा रह जाये उसी दिल को समजने में क्यों ना हम कुछ  दिन रात गुजरते जाये

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