Saturday 4 July 2015

कविता ५२. कुदरत

                                                                      कुदरत
फलों में जो खुशबू वह हर बार सुनाती है कुदरत ही है वह करिश्मा जो हमें हर बार आगे बढ़ना सिखाती है
वह सारी खुशबू जो हमे खुशियाँ ले जाती है फलों को जो ताकद होती है जो मन को खुशियाँ दे जाती है
पर हर बार कुदरत जो देती है वह खुशियाँ हमारी जिन्दगी में लाती है हमे वह ताकद जो कुदरत देती है
वह हमारी मन को भाती है कुदरत जो हर बार कुछ हमें कहती है हम उस कुदरत को हमेशा समज पाते है
पर कभी कभी उसकी और देखना ही भूल जाते कितनी बार हम कामों में खुशियों को भुला देते है
और हर बार हम बस यही सोचते रहते है की काश कुदरत भी हमारा साथ देती पर हम  जिसके साथ नहीं है
कैसे वह हमारा साथ देती फिर भी यह कुदरत ही है जो हर मोड़ पर हमारे पास ही रहती है जब जब हम उठते है
कुदरत जो ताकद रखती है हर बार हमे खुशियाँ देती है बार बार हम जब सोचे की हम हार चुके है
बारिश बन के पानी देती है कोई ना बता सके है उसे नूर को माना की सब कहते है अनजाने होकर भी जानने का दम भरते है
कुदरत जो खुशियाँ देती है हर बार हमें  भाती है कुदरत में जो ताकद होती है वह हमे हर बार  कोई ना कोई खुशियाँ देती है
कुदरत में सारे रंग है जो हमें खुशियाँ देते है हर बार सारे रंग हमेशा अच्छे होते है पर जब कुछ वह गलत कर दे तो ना जाने क्यों उसी से नफरत होती है
कुदरत बड़ी अजीब चीज़ है जिसे हम चाहे और ना भी चाहे एक पल कुदरत के पीछे भागे दुसरे पल किनारा रखते है
जब वह हमे खुशियाँ देती है हम भर भर के लेते है पर उस पल कुछ ही लोग होते है जो तारीफे करते है
तो वह कुदरत ही है जिसके बिन हम कुछ भी नहीं तो उस कुदरत को क्यों भूले हम ऐसे भूले खुशियों में उसको जैसे पत्थर के सनम 

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