Monday 27 July 2015

कविता ९७. कोई सोच

                                                                  कोई सोच
जब जब मन को कोई सोच छू जाती है हर बार जीवन में कोई ना कोई ख़याल मन में जगाती है तब तब मन को सोच जो हर बार बताती है
उस सोच को जिस के अंदर कोई नये तरह के खयाल लाती है उस ख़याल में अक्सर हमें कोई तो उम्मीद नज़र आती है
पर जब सोच ही गलत पुरानी हो जाती है वह हर बार उम्मीदों के उपर कोई असर तो मन में पैदा कर जाती है सोच के अंदर नयी दुनिया जिन्दा हो जाती है
जब जब सोच को हम समजे तब तब जीवन पर कोई तो असर कर जाती है बार बार इस सोच में हम अपनी दुनिया जगाते है
हर बार हम उम्मीदों के संग आगे बढ़ जाते है सोच के अंदर जो भी हम लाये वही हर बार हमें आगे ले जाये हम तो मन चाहते है
की सोच को हम समज पाये पर हर सोच इतनी अलग होती है की वह हम पर हर बार कोई ना कोई असर तो जरूर कर जाती है
सोच के अंदर हम हर बार कुछ तो समज लेते है सोच भी हमें साथ में उम्मीद दे जाती है हर किसम की सोच के अंदर नये ख़याल आते है
हर सोच के भीतर में हम नयी उम्मीद लाते है जब जब हम सोच के अंदर खुशियाँ  लाते है सोच के अंदर हर तरह के नये ख़याल लाते है
सोच में सारी बाते जो मन को समजा देती है वही बाते हर बार जो सोच दिखाती है उनको समजो तो दुनिया जन्नत बन जाती है
पर अफ़सोस तो यह है की गलत सोच भी इन्सानो में होती है जो हर बनती है और उम्मीदों को  बरबाद कर देती है 

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