Monday 10 August 2015

कविता १२५. आँखें और लब्ज

                                                                 आँखें और लब्ज
काश लब्ज आसानीसे  गिरते पत्तों की तरह तो कई बार हम बातों को समज जाते लब्ज तो तोफा होते है उस दिल का
जिसके अंदर हम अपना जहाँन रखते है लब्ज हर बात को समजाते है पर जब वह नहीं निकलते है तो हम जीवन का सबसे बड़ा इम्तिहान देते है
जीवनमे लब्ज हर बार साथ दे यह ज़रूरी तो नहीं पर हम कहा यह बात समज जाते है जब जब आँखें लब्जो की जगह लेती है
अक्सर इशारे बेईमान हो जाते है पर हम कहा समजते  है आँखों को अच्छी तो हमे ज़बान लगती है जो हम से सीधे से तो कुछ कहती है
हमे आँखों की बात खाक समजती है हर लब्जों पे यकीन करते है हम पर जीवन को नहीं समजते है
क्यूकी दुनिया मे ऐसे लोग कहा जो हमे समजाने मे वक्त गवाया करते है हर कोई अपने ही धुंद मे खड़ा है
किसीको इस नहीं तो उस मुसीबत ने घेरा है हमे कहा वह लोग समजा पाते है इशारे समजले यही उम्मीद रखते है
अफ़सोस तो यह है की हम उन्हें समजते ही नहीं और बिना बजह परेशान करते है खुद ही समजते तो अच्छा होता
क्यूँकी फिर लब्ज आँखों की जगह होठों से बयान होते है जो हमे हर बार जीवन को समजनेमे मुश्किल तरीक़े देते है
लब्ज तो सक्त होते है वह मनको कभी भी चोट दे कर ही जीवन के हर क़िस्से को बयान करते है

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