Friday 14 August 2015

कविता १३३. लब्जों के अंदर

                                                                लब्जों के अंदर
जब जब लब्जों के अंदर नयी दुनिया दिखती है उन लब्जों के अंदर कई तरह की जिन्दगी दिखती है हर बार लब्जों के अंदर नयी दुनिया दिखती है
जिस को जीने से हमें नयी मंज़िल सी मिलती है हर बारी जीवन के अंदर कोई अलग तरह की सोच भी लाती है हर बारी जीवन में नयी नयी सोच सी जगाती है
एक लब्ज ही काफी है जिससे दुनिया बदलती है जब जब हम जीते तब तब दुनिया नया रंग देती है हर बारी वह जीवन को बदलसा देती है
जब जब हम समजे जीवन को उसमे नयी शुरुवातसी होती है हर सुबह हमें नया तराना देती है जब जब हम जागे तब तब इस दुनिया में सुबह ही  होती है
जीवन में हर मोड़ पर नयी दुनिया ही होती है लब्ज जगाये उस जीवन को जिसमे धरती जिन्दा होती है लब्ज तो वह होते है जिनके अंदर दुनिया जिन्दा होती है
लब्ज के अंदर कई तरह के भाव छुपे होते है उनके लब्ज जो बनते है उस प्यारी सोच जो मन के अंदर होती है जब जब जीवन के अंदर असर भी रखती है
लब्ज तो वह सोच है जो दुनिया को अच्छे से जिन्दा रखती है क्युकी अक्सर नये नये लब्जों से ही दुनिया बनती है जो लब्जों को समज चुकी हो वही सही सोच होती है
लब्जों के भीतर भी एक उम्मीद होती है जो हर बार हमें जिन्दा रखना चाहती है तो प्यारे लब्ज ही सुना करो जिनसे दुनिया बनती है
जब जब हम दुनिया को समजे हमारी सोच सही से जिन्दा रहती है क्युकी वह सोच सही तरह के लब्ज जीवन में रखती है अगर उन लब्जों को समजो तो
दुनिया उन्हें जिन्दा रखती है क्युकी उन लब्जों के साथ ही तो हमारी दुनिया हर बार बनती है और बिघडती है सही लब्जों की अक्सर हमें तलाश होती है 

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