Monday, 3 August 2015

कविता १११. काली और सूखे फूल

                                                                   कली और सूखे फूल
कली में दिखती है वह हर बात जिसे हम जीना चाहते है वह नाजुकसी चीज़ को हम समजना चाहते है पर कली के अंदर कोई तो रूप है
जिसे हम छूना चाहते है जब हम उस बारे में सोच लेते है उसके अंदर का जीवन हम महसूस करते है हम शायद जीवन की शुरुवात को जीना चाहते है
हम समजना चाहते है वह जीवन की उस अनमोल मोके को समजना चाहते है कली के अंदर की रोशनी दिखने लगती है उसे समजना जरुरी होता है
कली के भीतर कई तरह की उम्मीदे छुपती है शायद वह जीवन की शुरुवात दिखाती है कली के भीतर नया अजूबा वह कली छुपाती है
जिसे देखते रहने की मन में एक चाहत सी उठती है जब जब हम कली को समजे हमें दुनिया समजती है जिन्दगी को समजने की दो राहे होती है
एक शुरुवात और आखिर उन दोनों से ही तो जिन्दगी समजती है शायद इसीलिए बूढे की बाते भी प्यारी लगती है क्युकी जवानी तो जीवन है
पर वह जीवन नहीं समजा पाती है बचपन की किलकारी में शुरुवात का मतलब होता है कोशिश  की पुकार वह हर बार सुनाती है
वह हमे आसानी से मेहनत सिखाती है बुढ़ापे की लाठी हमें समजाती है आखिर सबको चाहिये जीवन में एक शांती है वह सुगुन की चाह बताती है
जीवन पथ पर मेहनत तो हर बार करनी पड़ती है पर आखिर में शांती के लिए तो सारी मेहनत होती है जीवन तो हर बार कई रंग दिखाती  है
पर बुढापा और बचपन पूरा अर्थ चुपके से बताता है तभी तो कली देखते है या सूखे फूल उनकी निशान हम किताबों में रखते है वह हमें सारा जीवन सीखाते है 

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