Tuesday, 4 August 2015

कविता ११३. बात जो नहीं समजते है

                                                     बात जो नहीं समजते है
जब कोई बात हम कहते है हमें लगता है की शायद बस हम ही कहते है दिवारों को लोग कहते है की कान होते है तो फिर हमारी बात दीवारे क्यों नहीं समज पाती यही हम हर बार सोचते रहते है
क्युकी जो लोग चाहते है वही सिर्फ लोग सुनते है दिवारों के कान अनचाही बातों को लेकर कुछ कम ही सुनते है जिसे हम समजते है उसे वह भी समजते है
पर उसे सुनना चाहते ही नहीं तो कैसे किसीको समजते है जीवन जब हम सुनना ही नहीं चाहते तो अच्छे खासे कान भी बहरे हो जाते है
जीवन को समजना हम जरुरी समजते है पर जब बात मन चाही ना हो तो कितनी आसानी से उसे अनदेखा करते है यह जीवन है
जिस में लोग कहते कुछ और पर सचमुच में कुछ और ही करते सब देख रहे है लेकिन जाने क्यों अनदेखा कर लेते है कभी कभी जब काटे किसी ओर को चुभते है
लोग जाने क्यों सोच लेते है की उन काटो को ना देखे  क्युकी वह काटे तो बस दुसरो को चुभते है पर काश की वह समज पाये की वह काटे नहीं है
वह तो खंजर होते है और जो एक बार उनसे काटना सीख ले वह अक्सर उन्हें सिर्फ चुभाते रहते है जीवन में वह खंजर हमें भी कभी ना कभी जरूर चुभते है
जो दूसरो के गमों में नहीं रोते वह अपने गम पर तो अक्सर रोते है क्युकी गम तो एक आग की तरह हर ओर जाता है तो वह गम उन्हें भी मिलने आते है
पर अफ़सोस तो इस बात का है की बाकी लोग तब तक  आगे बढ़ जाते है तो फिर वही लोग रोते है इस बात को की काश हम दूसरों के गम में ही रो देते

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