Tuesday, 25 August 2015

कविता १५६. माली के फूल

                                          माली के फूल
कोई फूल कभी उम्मीदों से जब हमारी तरफ देखता है उन फूलों को छूने का मन तो अक्सर होता है पर डर के माली से तो हम बस यही करते है
अपने ही छोटे से आंगन में प्यारे से फूल ही दिखते है फूलों को समजे तो दुनिया में वह खुशियाँ तो देते है पर प्यारे फूल तो वह होते है 
जो जीवन में अंग भर देते है वह फूल तो सिर्फ हमारी दुनिया जिन्दा करते है जब जब हम फूलों को समजे तो वह अपने बगीचे में ही अच्छे लगते है 
दूसरों के बगीचों के फूल जाने क्यों लोग चुनना चाहते है मन तो अक्सर करता है पर फिर मन हम से यह पूछता है अगर कोई हमारे संग यह कर दे तो क्या हमें सही यह लगता है 
अगर दूसरों के फूल चुनना चाहो तो पहले माली बन के खुद  उगाओ तो ही वह बात आप मन से समजते है पहले दिन तो चुन लो गे अपना बाग से आप पर दूसरे दिन मन कतराता है 
वह फूल उसी पेड़ पर प्यारा लगने लगता है जब जब हम जीवन को समजे उम्मीदों का कारवा संभलता है जब हम अपने फूल उगाये तो ही तो दूसरे की चीज़ की किंमत मन समजता है 
कोई सक्ती से रोके तो भी जो न समजते है वह प्यार से उगाने से समज जाते है पर वह माली भी कैसा माली है जो कोई फूल तोड़े तो गाली देकर जाता है 
सच्चा माली तो वह है जो पहले तो खयाल रखता है और टूटने पर मन से नये फूलों की उम्मीदों में खुश हो जाता है जो ग़ुस्सा हो वह माली तो अनाडी होता है
क्योंकि सही माली तो वह होता है जो उगे हुए फूलों के साथ टूटे हुए फूलों पर हँसना जानता है वही तो फूलों को सही तरीक़े से हर बार जीवन मे लाना जानता है
वह जैसे बनना जानता है वैसे ही वह टूटने का दर्द भी जीवन मे कई बार सहना जानता है उसके संग हर बार आगे बढ़ना जानता है

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