Wednesday, 5 August 2015

कविता ११५. खुद को समजाना

                                      खुद को समजाना
जब जब हम कुछ सोचे आप बात को सही किया करो हम माने या ना माने बात को समजाया करना
दिल यही चाहता है की हम हर बार सही हो आप उस बात को समज ही लेना ऐसा अक्सर होता है
मन सच को नही अपनाता है उसे कभी कभी हमारे खातिर बार बार कह देना और मन मे उम्मीदों के किनारे भी रखना
कभी कभी जीवन मे ऐसा भी होता है सच सामने होता है और मन उसे नही अपनाता है उस पल उसे बार बार कहना जरुरी होता है
आप उसे दोहराते रहना यही मन का कई बार होता है कहना क्युकी तुफानों से तो वह लढ जाता है पर उम्मीदों मे ही कभी कभी कुछ कम पड जाता है
कुछ जल्दी ही हार मान लेता है उस मन को आप फिर से उम्मीदे देना हर बार जब जीवन जिन्दा रहता है
वह उम्मीदों को साया देनेवाले काश आप जीवन मे होते हर बार जब जीवन कोई दोस्त चाहता है वह उससे उम्मीदे पाते है
जब जब हम जीवन को जीना चाहते है उसके अंदर उम्मीदों को चुपके से मन को छू लेते है जीवन मे हर मोड पर हम यही उम्मीद करते है
काश कोई ऐसा होता जो उम्मीदों को जिन्दा करता खुशकिस्मत तो वह लोग होते है जो जीवन मे वह लोग पाते है
पर जादा तर ऐसा नही होता तो बेहतर तो यही होगा की हम खुद को ही समजाले खुद ही खुद को मौका देकर दूर करे वह दुःख के साये

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