Sunday 16 August 2015

कविता १३८. सोच जिसमे दुनिया नहीं बसती

                                                        सोच जिसमे दुनिया नहीं बसती
नये नये किनारों से हर रोज़ एक नयी सोच मिली उस सोच के सहारे दुनिया कि हर बात संभलती जो सोच हम जीवन के हर पथ पर रखते है वह दुनिया मे आसानी से नहीं संभलती
जब जब हम आगे बढ़ते जाये वह सोच हमेशा आगे चली है सोच तो वह है जिसमें अपनी अच्छाई हर बार है जगती जब जब हम सोचे तब तब दुनिया मे है नयी उम्मीद जगती
सोच तो वह शुरूवात है जिसमें जीवन की बुनियाद है बनी पर हम हर बार सोचते रहते है की नयी सोच हमे आगे ले जायेगी सोच तो अलग अलग होती है उनमें जीवन दिखता है
उसी सोच के अंदर नयी राह हर बार नहीं होती अलग अलग सोच उनमें नया ख़याल भी होता है कभी कभी उस सोचके अंदर नयी शुरुवात होती है उस सोचके अंदर  नयी दुनिया नहीं होती है
पर जब हम गलती से नयी सोच होती है जिसमे कोई असर नहीं होता क्युकी शायद नयी सोच में नयी शुरुवात नहीं होती है जीवन के अंदर कोई नयी सोच नहीं लाती है वह सिर्फ बात करती है जीवन को आगे बढ़ना नहीं सीखाती
जब जब हम आगे बढ़ते है जीवन में नयी शुरुवात नहीं होती है सोच के अंदर अलग तरह की शुरुवात जरूरी होती है सोच के अंदर कोई दुनिया नयी दुनिया नहीं बनती
पर जब हम सोच के अंदर नयी दुनिया नहीं पाते तो जीवन में खुशियाँ नहीं मिलती जो सोच नयी दुनिया दे वह बस परछाई बनती है जिसमे उम्मीद नहीं मिलती
सोच के भीतर जो दुनिया होती है वह जीवन पर कुछ ऐसा असर करती है की जीवन में नयी दुनिया उस तरह से बनती है की खुशियाँ नहीं होती
चाहे कुछ भी कहे कोई पर अपनी सोच तो अक्सर अहम है होती जो ले जाती है अपनी दुनिया को आगे जिसमे कई बार खुशियाँ की कोई भी कमी कभी भी हमें महसूस नहीं होती
सोच तो बस वही सही है जिसमे दुनिया है बड़ी प्यारी दिखती जब जब उस सोच को समजे उसके अंदर उम्मीदे हर बार खो जरूर है जाती 

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