Friday 11 September 2015

कविता १८८. ख़यालों को बदलना

                                       ख़यालों को बदलना
कभी हमने देखा है जीवन मे ख़यालों को बदलते हुए लोगों को कहते हुए कि कितनी ग़लत बात है और फिर दोहराते हुए हर बात को समजते रहते है
पर फिर हमने देखा है लोगों को बदलते हुए हर बार सही चीज़ की जगह ग़लत बात जीवन मे करते हुए पर जब ग़लत करते है वह लोग तो कहते है दुनिया की यही रीत है
पर सच कहे तो हमने देखा है जीवन मे हर बार कुछ तो ग़लत उनमें ज़्यादा ही होता है पर अफ़सोस तो इस बात का है की इन्सान ग़लतियाँ दिखानेवाले को ही सही समज लेता है
उसकी तारीफ़ों मे कुछ ऐसे कशिदे पढ़ने के बाद पीछे हटने से जाने क्यूँ हम डरते है जीवन को जब परखे तब गलती तो हम अक्सर करते है पर हार मानने से हम डरते है
डटे रहते है ग़लत बात पर जब दुनिया हमे परखती है जो छोटीसी गलती हो सकती थी वह गुनाह बन के उभर आती है क्यूँ की जो गलती सुधारी न जाये वह गुनाह बन जाती है
जीवन की जो बातें आसानी से सुलझ जाती वह बड़ी मुश्किल बन के सामने आती है वह जीवन को कुछ ऐसा रंग दे जाती है कि जीवन के हर मोड़ पर कुछ मुश्किल ही नज़र आती है
हम नहीं समज पाते है जीवन को क्यूँ की जिन्दगी रंग नया दिखाती है जब जब हम समजे जीवन को दुनिया हमे समजाती है वक्त पर जो माने गलती दुनिया उसका साथ निभाती है
अपनी गलती जो हम सुधार ले तो ईश्वर भी हमारा साथ निभाते है हर कदम पर जाने क्यूँ हम अपने अहम मे अटक कर जीवन कि सही राह समज नहीं पाते है
पर फिर हम सोचते है क्या करना है हमे औरों की राहों से जब हम अपनी राह पे ही उलझे हुए नज़र आते है अपनी राह पर चलते चलते हम जीवन पर असर कर जाते है
अपनी जिद्द के होते हुए हम सही दिशा नहीं समज पाते है हम भटकते जाते है पर जीवन को नहीं समज पाते जब जब हम जिद्द को समजे है तभी जीवन को उस से अलग रख कर कोई दिशा नहीं पाते है

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