Sunday 13 September 2015

कविता १९२. उलझन का आना जाना

                                     उलझन का आना जाना
नीले आसमान मे जब काला रंग आ जाता है जीवन की कोई नयी उम्मीद वह दे जाता है माना कि बिन बारीश के तरसे हम पर जीवन तो अक्सर बदलता रहता है
जो भी मिल जाये ऊपर से वही अक्सर सही होता है जब मुश्किल आती है तो जीवन हमेशा सुलझता रहता है जो उलझाता है उसको वही तो ऊपर से सुलझाता है
जीवन को हर बार हम देखे वह हर गुथी सुलझा लेता है जीवन के अंदर हर बार कुछ असर कर लेता है धीरे धीरे जीवन को समजे तो वह खुद ही उलझ जाता है
और खुद ही उसे सुलझ जाना होता है जीवन को हर बार जो समजो तो उसका यही किस्सा होता है वह उलझन को बनाना और मिटाना दोनों अच्छे से जानता है
हर बस उसके उलझन पर बिना बजह उलझते है हम उसकी उलझन को हर बार समजने कि कोशिश करते है पर हर उलझन के अंदर दुनिया के रंग नये पाते है
उलझन सुलझाने के चक्कर मे हम दुनिया को खुद ही और उलझाते है सीधे रस्ते कुछ उस तरह टेढे बन जाते है हर राह बस मुसीबत ही हम बनाते है
उसे हर बार हम आगे ले जाते है पर कितने ग़लत है हम जो हर बार यही सोचते रहते है जीवन मे तरह तरह के असर तो हमेशा होते है जो जीवन पर असर कर जाते है
पर जीवन अपनी तरह से सुलझता है और अपनी मर्ज़ी से हम जीवन को समजते है सारी चीज़ें जो हम जीवन मे आगे ले जाती है जीवन के कई रंग जो हमे छू जाते है
जीवन मे कभी हम आगे तो पीछे चले जाते है जीवन मे तरह तरह के असर अक्सर जीवन को बदलते जाते है जीवन मे कुछ ख़याल तो आते है और जाते है
जीवन के अंदर बदलाव तो अक्सर आते है क्योंकि जीवन के अंदर तरह तरह कि चीज़ें जीवन मे आती है और जाती है वह अक्सर जीवन पर सही असर कर जाती है

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