Friday 4 September 2015

कविता १७६. शीशा

                                                                  शीशा
शिशों के अंदर तरह तरह के चेहरे हर बार नज़र आते बिन कुछ बदले शीशा हमे जीवन के सच बताता है शिशों मे देखे तो दुनिया का अलग असर दिखाते है
शिशा अपने अंदर सिर्फ़ चीज़ों को दोहराता है जो सच है वही अक्सर शीशा बताता है शिशे के भीतर कुछ नया नहीं बस वही अपना चेहरा आता है पर शिशे मे देखते है
तो कभी कभी कुछ नहीं कहते हमें पर सच्चाई शीशा दिखता है जीवन का हर हिस्सा उसमें नज़र आता है कभी हमें वही सोच दर्द दे जाती है  और रुलाती है
हर बार जो दर्द जीवन में सच्चाई से होता है शिशों में दिखनेवाली सच्चाई वह मन को दिखलाती है सच्ची राह हमें हमेशा प्यारी नहीं लग पाती है
पर शिशे में हर बार अलग खूबसूरती भाती है शिशे के अंदर सच्चाई हमेशा नज़र आती है जो हम चाहते है वह सारी बाते जीवन में आ जाती है
पर शिशे में ही असली दुनिया हमें हमेशा नज़र आती है शिशे के अंदर कोई बात जो दिख जाये उसका असर हमेशा जीवन पर तो होता है
शिशे के अंदर हर बार कोई ना कोई असर हमेशा होता है शिक्षा तो वह है जो जीवन का हर रंग दिखाता है उस के अंदर आता है जीवन में वह कोई असर कर जाता है
शीशा तो जीवन पर कोई ना कोई सच्चाई तो जरूर दिखाके जाता है पर हम उसे कैसे अपनाये यह हम पर निर्भर होता है शीशे के अंदर सारा सच दिखता है
शीशा तो वह असर कर जाता है शीशा जीवन में सचाई की सोच लाता है शीशा तो वह दिखाता है जो कभी ना कभी हमें अपनाना ही पड़ता है
शीशा तो वह किताब है जो कुछ ना कुछ तो असर जीवन पर कर जाता है शीशे के अंदर सचाई हर बार नज़र आती है जो जीवन को अलग तरीके से दिखाती है
शीशे के अंदर जीवन की कोई सच्चाई तो हमें जरूर भाती है शीशे में सच्चाई का प्रतिबिंब नज़र आता है मानो या ना मानो जीवन पर असर तो होता ही है
तो बेहतर है उसे अपनालो जो जीवन में सच होता है जो शीशे में दिखे उसे समजना अक्सर उचित और सही नज़र आता है 

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