Saturday, 5 December 2015

कविता ३५९. चाँद के ऊपर के बादल

                                       चाँद के ऊपर के बादल
चाँद को बादल के पीछे छुप जाने कि आदत होती है धीरे धीरे से चाँद को बादल को चीर कर जाना है चाहे कितना भी मुश्किल लगे पर चाँद को बादलों के पार तो जाना ही है
चाँद जो मन को उम्मीदें देता है उसका आसमान मे बसेरा तो हर बार होता ही है पर सवाल तो यह है कि बादल ही निकल जाते है या चाँद उन्हें चीर जाता है
कभी कभी आसमान उम्मीदें देता है तो कभी वही छिन कर ले जाता है जीवन कि हर धारा को समज लेना अहम नज़र आता है पर कैसे बताए नई उम्मीद कब होती है
क्योंकि आसमान तो बस अपनी मर्ज़ी से आगे चलता जाता है बादलों का आना जाना हर बार अलग मतलब जीवन को देता है बादल मे काली मुश्किलों का रहना होता है
चाँद जो आते जाते बादलों पर ही निर्भर होता है काले अँधेरे के पार जाना चाँद को ही जीवन देता है पर वह चाँद खुद ही तो बस बादल पे पूरी तरह निर्भर होता है
चाँद और बादलों कि एक महफ़िल होती है जिस हर बादल तय करता है कभी कभी चाँद को आसानी से तो कभी मुश्किल से उजाला देता है चाँद कहाँ तय कर पाता है
अपने जीवन मे उजाला आता है चाँद के ऊपर से काले काले बादल भी धीरे से हट जाते है चाँद कि रोशनी जीवन के अंदर अलग असर कर जाती है अँधेरा जब हट जाता है
जीवन मे ख़ुशियाँ दे जाती है चाँद के ऊपर से बादल जब हट जाते है जीवन के अंदर चाँद कि रोशनी ख़ुशियाँ दे जाती है पर वह अपनी मर्ज़ी से नहीं गैरों के मर्ज़ी से आती है
चाँद के ऊपर अंधियारे के बादल आसानी से हट जाते है मुश्किलें कोशिश करे तो धीरे धीरे जीवन से हट जाती है जीवन मे अलग एहसास हर बार रोशनी दे जाता है
अंधेरा का नतीजा हर बार अलग ही होता है जो हर पल हर घड़ी जीवन को एहसास नया दे जाता है वह अक्सर हमारा जीवन रोशन और ख़ुशियों से भर कर जाता है

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